बुधवार, 4 अगस्त 2010

3.हुसैन ने जनता से माफ़ी माँगी


बी.बी. सी. से साभार -
एमएफ़ हुसैन
हुसैन पहले भी विवादों में रहे हैं
चर्चित चित्रकार एमएफ़ हुसैन ने हाल में बनाए अपने एक चित्र में 'भारत माता' को बिना वस्त्र चित्रित करने के लिए माफ़ी माँगी है.

इस चित्र को बुधवार को एक चित्रकला प्रदर्शनी में दिखाया जाना और फिर नीलाम किया जाना था लेकिन अब इसकी नीलामी नहीं होगी.

इस चित्र को लेकर हिंदूवादी संगठनों ने आपत्ति जताई थी और लोगों की भावनाएँ आहत करने के आरोप में हुसैन के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया गया है.

मुंबई पुलिस ने कहा है कि वह मामले की जाँच कर रही है.

हिंदू जनजागृति समिति और विश्व हिंदू परिषद के प्रदर्शनों के बाद, हुसैन ने मुंबई में कहा कि वे जनता से माफ़ी माँगते हैं.

दिल्ली की जिस आर्ट गैलरी यानि चित्रशाला में इस चित्र की नीलामी होनी थी, उसकी निरीक्षक शरन अप्पाराव का कहना था कि इस विषय पर उन्हें कई फ़ोन आए हैं.

उनका कहना था कि उन्हें ज़्यादतर महाराष्ट्र से फ़ोन आए हैं और कई लोगों ने गालियाँ तक दी हैं और ये स्वीकार्य नहीं है.

इससे पहले भी हुसैन सरस्वती के चित्र को लेकर विवाद में पड़ चुके हैं और इसे लेकर हिंदू संगठनों ने बड़ा विरोध किया था.

जिस चित्र को लेकर अब विवाद हो रहा है उसे चित्रकार एमएफ़ हुसैन ने हाल ही में बनाया है.

भूकंप पीड़ितों के लिए

मुंबई में 'मिशन कश्मीर' के नाम से एक चित्रकला प्रदर्शनी आयोजित की गई थी. इसमें प्रदर्शित चित्रों की नीलामी से होने वाली आय को कश्मीर के भूकंप पीड़ितों को भेजा जाना था.

इसी प्रदर्शनी के लिए हुसैन ने यह चित्र बनाया था.

इस चित्र में हुसैन ने तिरंगे में लगने वाले अशोक चक्र के सामने खड़ी एक महिला का चित्र बनाया है.

इस चित्र में महिला को निर्वस्त्र दिखाया गया है और उसके शरीर पर कई राज्यों के नाम लिखे हुए हैं.

इस चित्र का विरोध कर रहे संगठनों का कहना था कि ये 'भारत माता' का चित्र है और जिस तरह से इसे बनाया गया है वह भारतीयों और हिंदुओं की भावनाओं का अपमान है

2.उम्रक़ैद ने बना दिया कलाकार

बी.बी. सी. से साभार -

प्रदीप राभा का बनाया हुआ एक चित्र
प्रदीप राभा के एक चित्र को राष्ट्रीय स्तर पर दूसरा स्थान मिला है.
पिछले 12 वर्षों से क़त्ल के अपराध में उम्रक़ैद की सज़ा काट रहे प्रदीप राभा ने चित्रकारी को अपने जीवन का नया दोस्त बना लिया है.

पूर्वोत्तर भारत के राज्य असम की राजधानी गुवाहाटी के केंद्रीय कारागार में 35 वर्षीय प्रदीप रोजाना दो-तीन घंटे अपनी कला प्रतिभा को संवारने में लगाते हैं.

उनके शिक्षक हरिप्रसाद तालुकदार का कहना है कि शुरुआत में इन्हें पेंसिल पकड़ना भी नहीं आता था लेकिन अपनी इच्छाशक्ति के बल पर उन्होंने इतनी उन्नति की कि पिछले वर्ष अखिल भारतीय स्तर की एक प्रतियोगिता में प्रदीप की कलाकृति को दूसरा स्थान प्राप्त हुआ.

गुवाहाटी से क़रीब 80 किलोमीटर दूर बोको के पास भेगुआ गांव के निवासी प्रदीप को अपने पड़ोसी प्रजेन की हत्या के मामले में 20 वर्ष की क़ैद की सज़ा दी गई है.

हालांकि उसका कहना है कि हत्या उसने नहीं बल्कि उसके बड़े भाई पूर्ण ने की थी. प्रदीप के भाई को भी उम्रक़ैद की सज़ा हुई है.

क़ैद की सज़ा होने के बाद कारागार में प्रदीप के पास उनके करने लायक कोई ख़ास काम नहीं था.

शुरुआत

धीरे-धीरे प्रदीप ने लकड़ी का काम सीखा और जेल में लकड़ी के कारीगर के लायक जितने भी काम होते थे, वो उन्हें करने लगे.

जिस दिन तत्कालीन पुलिस महानिरीक्षक ने इन कक्षाओं को शुरू करवाया था, वह दिन मेरे जीवन में भी बहुत अहमियत रखता है
हरिप्रसाद तालुकदार, कला शिक्षक

वर्ष 2000 में जब तत्कालीन पुलिस महानिरीक्षक शिव काकती जेल में भारत के प्रख्यात कलाकार ननी बरपुजारी को लेकर आए और यहाँ कला की कक्षाएँ शुरू करवाईं तब मात्र नौंवी कक्षा तक पढ़े प्रदीप का मन भी रंग और कूची से खेलने के लिए मचलने लगा.

प्रदीप ने भी कक्षा में अपना नाम लिखा लिया. तब से वो लगातार अपने अन्य चार-पांच साथियों के साथ कैनवास पर हाथ आजमाते हैं.

गुवाहाटी केंद्रीय कारागार में दैनिक रूप से कला की कक्षा लगती है.

शिक्षक हरिप्रसाद तालुकदार बताते हैं, "जिस दिन तत्कालीन पुलिस महानिरीक्षक ने इन कक्षाओं को शुरू करवाया था, वह दिन मेरे जीवन में भी बहुत अहमियत रखता है."

तालुकदार बिना एक क्षण रुके बताते हैं कि उस दिन 12 फ़रवरी की तारीख थी.

कारागार में कला की शिक्षा का अनुभव उनके लिए रोमांचकारी रहा है. उनका कहना है कि जेल में उनके छात्र कला के लिए ज़्यादा समय दे पाते हैं इसलिए उनकी छिपी प्रतिभा को बाहर निकालने में ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पडती.

क्रांतिकारी क़दम

तालुकदार का मानना है कि जेल में कला की शिक्षा शुरू करना एक क्रांतिकारी क़दम था. यह अवसादग्रस्त कैदियों के लिए एक इलाज की तरह काम करता है.

प्रदीप राभा
प्रदीप उम्रक़ैद की सज़ा काट रहे हैं.

जेल में प्रदीप राभा कला के अकेले छात्र नहीं हैं. उन्हीं के साथी दुलाल राभा पेड़ों के चित्र बनाते है.

कारागार में रहते हुए विभिन्न पेड़ देखने का उन्हें मौका तो नहीं मिलता लेकिन गाँव से आए दुलाल अपने वर्षों पहले देखे हुए पेड़ों की छवि को फिर से तुलिका के माध्यम से कैनवास पर उतारने का प्रयास कर रहे हैं.

हरिप्रसाद का कहना है कि विभिन्न ग़ैर-सरकारी संस्थाएँ जेल में चित्रकारी की कक्षाओं के लिए ज़रूरी सामान मुहैया करा जाती हैं.

इधर प्रदीप अपने अच्छे चाल-चलन के कारण अन्य क़ैदियों और कारागार अधिकारियों में काफी लोकप्रिय हो गए हैं.

कला ने इस गुस्सैल युवक को बदल कर रख दिया है. नियमों के तहत जेल अधिकारियों ने उन्हें अब हर वर्ष अपनी माँ, दीदी और छोटे भाई से मुलाक़ात करने के लिए एक महीने तक अपने गांव जाने की इजाज़त दे रखी है.

1.कला के क्षेत्र में बढ़ते भारतीय

बी.बी. सी. से साभार
आर्ट रिव्यू पत्रिका
पिछले छह साल से कला की दुनिया के प्रभावशाली लोगों की सूची निकाली जा रही है
आधुनिक कला की जानी मानी पत्रिका आर्ट रिव्यू ने कला की दुनिया के सौ प्रभावशाली लोगों की सूची में पहली बार तीन भारतीय नागरिकों को शामिल किया है.

ऐसा पहली बार हुआ है जब आर्ट रिव्यू ने प्रभावशाली लोगों की सूची में किसी भी भारतीय को शामिल किया हो. इस बार इस सूची में कलाकार सुबोध गुप्ता, ओसियान नीलामी घर के प्रमुख नेविल तुली और आर्ट कलेक्टर अनुपम पोद्दार शामिल हैं.

हालांकि इन सभी को सूची में काफी पीछे रखा गया है लेकिन इसके बावजूद विशेषज्ञ कहते हैं कि ये कला के क्षेत्र में भारत के बढ़ते महत्व को दर्शाता है.

सुबोध गुप्ता मूलत पेंटिग्स और इन्सटॉलेशन्स बनाते हैं और उनकी कृतियां दुनिया भर में लाखों रुपए में बिकती हैं. उन्हें इस सूची में 85वां स्थान दिया गया है.

भारत में कला का बाज़ार 1500 करोड़ रुपए से अधिक का है.

लंदन की पत्रिका आर्ट रिव्यू पिछले छह साल से प्रभावशाली लोगों की सूची निकालती है. यह सूची निजी आर्ट कलेक्शन, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यक्ति विशेष के प्रभाव और बाज़ार में किसी के काम के मूल्यांकन जैसे मानदंडों पर अपनी सूची में किसी को भी स्थान देती है.

भारत के नेविल तुली को सूची में 99वां और अनुपम पोद्दार को 100वां स्थान मिला है.

तुली मुंबई में ओसियान नीलामीघर के प्रमुख हैं और मार्डन आर्ट को भारत में लोकप्रिय बनाने में उनका खासा योगदान माना जाता है.

पिछले कुछ वर्षों में भारतीय कला बाज़ार में पेंटिगों और अन्य कृतियों की कीमतों में भारी उछाल आया है. इतना ही नहीं विदेशों में भारतीय कलाकारों के कृतियों की कई प्रदर्शनियां भी लगी हैं.

हालांकि इसके बावजूद विशेषज्ञ कहते हैं कि इस सूची को बनाने वालों ने उन कलाकारों पर अधिक ध्यान दिया जिनके संबंध में अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने कवरेज की है.

सूची के तीनों ही भारतीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी सक्रिय रहे हैं और सूची में शामिल होने का यह एक बड़ा कारण बताया जाता है.

मंगलवार, 18 मई 2010

जिसके हाथ पर लिखा होता है, मेरा बाप चोर है.


ग़रीब के माथे पर तख़्ती

विनोद वर्मा विनोद वर्मा | रविवार, 16 मई 2010, 02:04 IST

आपको 'दीवार' फ़िल्म का अमिताभ बच्चन याद है, जिसके हाथ पर लिखा होता है, मेरा बाप चोर है.

उसमें सलीम-जावेद ने एक ऐसे ग़रीब परिवार के साथ समाज में होने वाले व्यवहार की एक कहानी रची थी जिसका दोष सिर्फ़ ग़रीबी था.

लेकिन देश की सरकारों ने ग़रीबों को ज़लील करने का एक नया तरीक़ा ढूँढ़ निकाला है. मानों ग़रीबी की ज़लालत कम थी.

कम से कम दो राज्य सरकारों ने ग़रीबी रेखा के नीचे रह रहे लोगों के घरों से सामने एक तख़्ती लगाने का फ़ैसला किया है जिससे कि पहचाना जा सके कि वह किसी ग़रीब का घर है.

छत्तीसगढ़ की सरकार पहले से ऐसा कर रही थी और अब राजस्थान की सरकार ने भी इसी तरह का फ़ैसला किया है. सरकारों का तर्क है कि इससे लोग जान सकेंगे कि कौन सा परिवार सरकार की दो या तीन रुपए किलो चावल की योजना का लाभ उठा रहा है. उनके अनुसार इससे यह पहचानने में भी आसानी होगी कि टीवी,फ़्रिज और गाड़ियों वाले किन घरों के मालिकों ने अपने को ग़रीब घोषित कर रखा है.

लेकिन उन ग़रीबों का क्या जो आज़ादी के 63 साल बाद भी सिर्फ़ इसलिए ग़रीब हैं क्योंकि इस देश की और प्रदेशों की कल्याणकारी सरकारों ने अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाई? क्या सरकार को हक़ है कि वह ग़रीब रह गए लोगों का इस तरह से अपमान करे?

इन ग़रीबों ने सरकारों से जाकर नहीं कहा था कि उन्हें दो या तीन रुपए किलो चावल दिया जाए. एक तो वह राजनीतिक दलों का वोट बटोरने का तरीक़ा था. दूसरे वे जब ग़रीबी दूर करने का उपाय नहीं तलाश कर सके तो ग़रीब को ग़रीब रखते हुए सरकारी खजाने से अस्थाई राहत देने का तरीक़ा निकाल लिया. और अब इस बात पर सहमति भी बन रही है कि सरकारें ग़रीबों के माथे पर लिखवा दे कि वह ग़रीब है.

इससे दो बातें तो साफ़ है, एक तो यह कि चाहे वह भाजपा के रमन सिंह की सरकार हो या फिर कांग्रेस के अशोक गहलोत की सरकार, ग़रीबों के प्रति दोनों का नज़रिया एक जैसा ही है.

दूसरा यह कि जिन सरकारों को शर्मिंदा होना चाहिए कि वह ग़रीबी दूर नहीं कर पा रही हैं इसलिए मुआवज़े के रुप में दो या तीन रुपए किलो में चावल दे रही हैं, वही सरकारें ग़रीबों पर अहसान जता रही हैं.

जिस समय योजना आयोग के आँकड़े कह रहे हैं कि ग़रीबों की संख्या वर्ष 2004 में 27.5 प्रतिशत थी जो अब बढ़कर 37.2 प्रतिशत हो गई है, देश में किसानों की आत्महत्याएँ रुक नहीं रही हैं और जिस समय ख़बरें आ रही हैं कि ग़रीबी उन्मूलन का पैसा राष्ट्रमंडल खेलों में लगा दिया गया है.

उसी समय सरकारी आंकड़ों में यह भी दर्ज है कि देश के उद्योगपतियों और व्यावसायियों ने बैंकों से कर्ज़ के रूप में जो भारी भरकम राशि ली उसे अब वे चुका नहीं रहे हैं. यह राशि, जिसे एनपीए कहा जाता है, एक लाख करोड़ रुपए से भी अधिक है. देश की सौ बड़ी कंपनियों पर बकाया टैक्स की राशि पिछले साल तक 1.41 लाख करोड़ तक जा पहुँची थी.

बैंकों का पैसा और टैक्स अदा न करने वालों में देश के कई नामीगिरामी औद्योगिक घराने हैं और कई नामधारी कंपनियाँ हैं. इन कंपनियों के मालिक आलीशान बंगलों में रह रहे हैं और शानदार जीवन जी रहे हैं. इनमें से कोई भी ग़रीब नहीं हुआ है. अपवादस्वरूप भी नहीं.

क्या किसी राज्य की सरकार में यह हिम्मत है कि वह किसी बड़े औद्योगिक घराने या किसी बड़ी कंपनी के दफ़्तर के सामने या फिर उसके मालिक के घर के सामने यह तख़्ती लगा सके कि उस पर देश का कितना पैसा बकाया है?

जिस तरह सरकार को लगता है कि ग़रीबों का घर पहचानने के लिए तख़्ती लगाए जाने की ज़रुरत है उसी तरह देश के आम लोगों का पैसा डकारने वालों के नाम सार्वजनिक करने की भी ज़रुरत है.

लेकिन सरकारें ऐसा नहीं कर सकतीं क्योंकि यही उद्योगपति और व्यवसायी तो राजनीतिक पार्टियों को चंदा देती हैं और यही लोग तो मंत्रियों और अफ़सरों के सुख-सुविधा का ध्यान रखते हैं.

अगर एक बार कथित बड़े लोगों से बकाया राशि वसूल की जा सके तो इस देश में ग़रीबी दूर करने के लिए बहुत सी कारगर योजना चलाई जा सकती है.

लेकिन साँप के बिल में हाथ कौन डालेगा और क्यों डालेगा?


बी.बी.सी.हिंदी से साभार -

विनोद जी एक दुखती नब्ज को आप ने जरा धीरे से दबाया है, सदियों के दर्द से कराहता गरीब अब लगभग सर्कार के हर गरीबी हटाओ अभियान से जिस कदर उब चुका है, उसका संज्ञान पता नहीं सरकारों को हो रहा है कि नहीं, गरीब तो गरीब अमीर भी ऐसे उपक्रमों से बाज़ नहीं आ रहा है जिसे आप ने चिन्हित किया है उसके आलावा एक बड़ी फौज है जो इन योजनाओ का खून पी रहा है, आपको क्या पूरे देश को याद होगा एक ज़माने में एक राजनेता ने कहा था जो पैसा यहाँ से (सरकारों) भेजा जाता है उसका १५% ही पहुचता है, ८५% को कौन पीता है दरअसल वही पहचानने योग्य है. उसके माथे पर तो कुछ लिखा ही नहीं जा सकता. कई प्रदेश जो नियमित रूप से धन का रोना रोते रहते है वही अपने राज्यों में गरीब का सारा हिस्सा को लूट करते बेशरम हो जाते है.
आजकल बाबा रामदेव विदेशों में जमा दौलत स्वदेश लाने का आन्दोलन चला रहे है काश उनके नामों कि लिस्ट ही कहीं लग जाती जिस तरह सरकार को लगता है कि ग़रीबों का घर पहचानने के लिए तख़्ती लगाए जाने की ज़रुरत है उसी तरह देश के आम लोगों का पैसा विदेशी बैंकों में रखने वालों की सूची बनाकर उनके नाम सार्वजनिक करने की भी ज़रुरत है.इन गरीबों पर जितना भी कहर ढा लें ये सरकारें पर जिस दिन भी उन औद्योगिक घरानों की ओर बुरी नज़र से देखने की हिमाकत भी इन्होने की तो इनके हाल क्या होंगे ?
जो देश उस गरीब मेहनतकश मज़दूर को चूसता है तो वह देश कितना विक्सित होगा अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है, यही कारण है कि गरीब की हर योजना का मोटा हिस्सा किसी मशीन के तेल के रूप में जलाया जाता है, और उसी तेल के खेल से देश की मशीनरी सड़क रौदने वाली मशीन की तरह आराम से चलती जा रही है, और गरीब उसी रौदने वाली सरकारों से निरंतर रौदा जा रहा है. इन्ही के घरों पर तख्तियां लगायी जानी है जिससे उनकी पहचान कब्रगाह में की जा सके .
डॉ. लाल रत्नाकर

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

विश्वाश घात












डॉ.लाल रत्नाकर


विश्वाश घात के
भंवरजाल में
फंसते जाते
हंस हंस कर हम
घुसने से पहले तक जो थे,
शातिर अपराधी
भंवरजाल में घुस जाने पर
लगने लगे
वही सन्यासी
अब उनके आचरण
बताते जैसे
वो थे पहले के सन्यासी
नाहक वे तब पीट रहे थे
अपनी अपनी छाती|
विश्वासघात के भंवरजाल को
समझा एक झमेला
साजिश का घर था
मुझे क्या पता था
जुटा हुआ है यहाँ अज़ब
क़िस्म का मेला
जो बनता था
नेता ,(इंसानियत का पुतला)
वही रचा था
हर आहत का
घेरा
भंवर जाल में
घुस जाने पर
मिला वहां सब
जिन सब की निंदा करते थे
उन्हें बनाया चेला |

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

अब मत कहना ख़ान का मतलब...मुसलमान

अब मत कहना ख़ान का मतलब...मुसलमान


- रवीश कुमार

माय नेम इज़ ख़ान हिन्दी की पहली अंतर्राष्ट्रीय फिल्म है। हिन्दुस्तान,इराक,अफ़गानिस्तान,जार्जिया का तूफान और अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव। कई मुल्क और कई कथाओं के बीच मुस्लिम आत्मविश्वास और यकीन की नई कहानी है। पहचान के सवालों से टकराती यह फिल्म अपने संदर्भ और समाज के भीतर से ही जवाब ढूंढती है। किसी किस्म का विद्रोह नहीं है,उलाहना नहीं है बल्कि एक जगह से रिश्ता टूटता है तो उसी समय और उसी मुल्क के दूसरे हिस्से में एक नया रिश्ता बनता है। विश्वास कभी कमज़ोर नहीं होता। ऐसी कहानी शाहरूख जैसा कद्दावर स्टार ही कह सकता था। पात्र से सहानुभूति बनी रहे इसलिए वो एक किस्म की बीमारी का शिकार बना है। मकसद है खुद बीमार बन कर समाज की बीमारी से लड़ना। मुझे किसी मुस्लिम पात्र और नायक के इस यकीन और आत्मविश्वास का कई सालों से इंतज़ार था। राम मंदिर जैसे राष्ट्रीय सांप्रदायिक आंदोलन के बहाने हिन्दुस्तान में मुस्लिम पहचान पर जब प्रहार किया गया और मुस्लिम तुष्टीकरण के बहाने सभी दलों ने उन्हें छोड़ दिया,तब से हिन्दुस्तान का मुसलमान अपने आत्मविश्वास का रास्ता ढूंढने में जुट गया। अपनी रिपोर्टिंग और स्पेशल रिपोर्ट के दौरान मेरठ, देवबंद, अलीगढ़, मुंबई, दिल्ली और गुजरात के मुसलमानों की ऐसी बहुत सी कथा देखी और लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की। जिसमें मुसलमान तुष्टीकरण और मदरसे के आधुनिकीकरण जैसे फालतू के विवादों से अलग होकर समय के हिसाब से ढलने लगा और आने वाले समय का सामना करने की तैयारी में शामिल हो गया। नुक़्ते के साथ ख़ान का तलफ्फ़ुज़ कैसे करें इस पर ज़ोर देकर बताता है कि आप मुसलमानों के बारे में कितना कम जानते हैं। मुझे आज भी वो दृश्य नहीं भूलता। अहमदाबाद के पास मेहसाणां में अमेरिका के देत्राएत से आए करोड़पति डॉक्टर नकादर। टक्सिडो सूट में। एक खूबसूरत बुज़ूर्ग मुसलमान। गांव में करोड़ों रुपये का स्कूल बना दिया। मुस्लिम बच्चों के लिए। लेकिन पढ़ाने वाले सभी मज़हब के शिक्षक लिए गए। नकादर ने कहा था कि मैं मुसलमानों की एक ऐसी पीढ़ी बनाना चाहता हूं जो पहचान पर उठने वाले सवालों के दौर में खुद आंख से आंख मिलाकर दूसरे समाजों से बात कर सकें। किसी और को ज़रिया न बनाए। इसके लिए उनके स्कूल के मुस्लिम बच्चे हर सोमवार को हिन्दू इलाके में सफाई का काम करते हैं। ऐसा इसलिए कि शुरू से ही उनका विश्वास बना रहे। कोशिश होती है कि हर मुस्लिम छात्र का एक दोस्त हिन्दू हो। स्कूल में हिन्दू छात्रों को भी पढ़ने की इजाज़त है। नकादर साहब से कारण पूछा था। जवाब मिला कि कब तक हमारी वकालत दूसरे करेंगे। कब तक हम कांग्रेस या किसी सेकुलर के भरोसे अपनी बेगुनाही का सबूत देंगे। आज गुजरात में कांग्रेस हिन्दू सांप्रदायिक शक्तियों के भय से मुसलमानों को टिकट नहीं देती है। हम किसी को अपनी बेगुनाही का सबूत नहीं देना चाहते। हम चाहते हैं कि मुस्लिम पीढ़ी दूसरे समाज से अपने स्तर पर रिश्ते बनाए और उसे खुद संभाले। बीते कुछ सालों की यह मेरी प्रिय सत्य कथाओं में से एक है। लेकिन ऐसी बहुत सी कहानियों से गुज़रता चला गया जहां मुस्लिम समाज के लोग तालीम को बढ़ावा देने के लिए तमाम कोशिशें करते नज़र आए। उन्होंने मोदी के गुजरात में किसी कांग्रेस का इंतज़ार छोड़ दिया। मुस्लिम बच्चों के लिए स्कूल बनाने लगे। रोना छोड़कर आने वाले कल की हंसी के लिए जुट गए। माइ नेम इज खान में मुझे नकादर और ऐसे तमाम लोगों की कोशिशें कामयाब होती नज़र आईं, जो आत्मविश्वास से भरा मुस्लिम मध्यमवर्ग ढूंढ रहे थे। फिल्म देखते वक्त समझ में आया कि इस कथा को पर्दे पर आने में इतना वक्त क्यों लगा। खुदा के लिए,आमिर और वेडनेसडे आकर चली गईं। इसके बाद भी ये फिल्म क्यों आई। ये तीनों फिल्में इंतकाम और सफाई की बुनियाद पर बनी हैं। इन फिल्मों के भीतर आतंकवाद के दौर में पहचान के सवालों से जूझ रहे मुसलमानों की झिझक,खीझ और बेचैनी थी। माइ नेम इज ख़ान में ये तीनों नहीं हैं। शाहरूख़ ख़ान आज के मुसलमानों के आत्मविश्वास का प्रतीक है। उसका किरदार रिज़वान ख़ान सफाई नहीं देता। पलटकर सवाल करता है। आंख में आंख डालकर और उंगलियां दिखाकर पूछता है। इसलिए यह फिल्म पिछले बीस सालों में पहचान के सवाल को लेकर बनी हिन्दी फिल्मों में काफी बड़ी है। अंग्रेज़ी में भी शायद ऐसी फिल्म नहीं बनी होगी। इस फिल्म में मुसलमानों के अल्पसंख्यक होने की लाचारी भी नहीं है और न हीं उनकी पहचान को चुनौती देने वाले नरेंद्र मोदी जैसे फालतू के नेताओं की मौजूदगी है। यह फिल्म दुनिया के स्तर पर और दुनिया के किरदार-कथाओं से बनती है। हिन्दुस्तान की ज़मीं पर दंगे की घटना को जल्दी में छू कर गुज़र जाती है। यह बताने के लिए कि मुसलमान हिन्दुस्तान में जूझ तो रहा ही है लेकिन वो अब उन जगहों में भेद भाव को लेकर बेचैन है जिनसे वो अपने मध्यमवर्गीय सपनों को साकार करने की उम्मीद पालता है। अमेरिका से भी नफरत नहीं करती है यह फिल्म। माय नेम इज़ ख़ान की कथा में सिर्फ मुस्लिम हाशिये पर नहीं है। यह कथा सिर्फ मुसलमानों की नहीं है। इसलिए इसमें एक सरदार रिपोर्टंर बॉबी आहूजा है। इसलिए इसमें मोटल का मालिक गुजराती है। इसलिए इसमें जार्जिया के ब्लैक हैं। अमेरिका में आए तूफानों में मदद करने वाले ब्लैक को भूल गए। लेकिन माइ नेम इज़ ख़ान का यह किरदार किसी इत्तफाक से जार्जिया नहीं पहुंचता। जब बहुसंख्यक समाज उसे ठुकराता है,उससे सवाल करता है तो वो बेचैनी में अमेरिका के हाशिये के समाज से जाकर जुड़ता है। तूफान के वक्त रिज़वान उनकी मदद करता है। उसके पीछे बहुत सारे लोग मदद लेकर पहुंचते हैं। फिल्म की कहानी अमेरिका के समाज के अंतर्विरोध और त्रासदी को उभारती है और चुपचाप बताती है कि हाशिये का दर्द हाशिये वाला ही समझता है। इराक जंग में मंदिरा के अमेरिकी दोस्त की मौत हो जाती है। उसका बेटा मुसलमानों को कसूरवार मानता है। उसकी व्यक्तिगत त्रासदी उस सामूहिक पूर्वाग्रह में पनाह मांगती है जो एक दिन अपने दोस्त समीर की जान ले बैठती है। इधर व्यक्तिगत त्रासदी के बाद भी रिज़वान कट्टरपंथियों के हाथ नहीं खेलता। मस्जिद में हज़रत इब्राहिम का प्रसंग काफी रोचक है। यह उन कट्टरपंथी मुसलमानों के लिए है जो यथार्थ के किसी अन्याय के बहाने आतंकवाद के समर्थन में दलीलें पेश करते हैं। रिज़वान उन्हें पकड़वाने की कोशिश करता है। वो कुरआन शरीफ से हराता है फिर एफबीआई की मदद मांगता है। घटना और किरदार अमेरिका के हैं लेकिन असर हिन्दुस्तान के दर्शकों में हो रहा था। जार्ज बुश और बराक हुसैन ओबामा के बीच के समय की कहानी है। ओबामा मंच पर आते हैं और नई उम्मीद का संदेश देते हैं। यहीं पर फिल्म अमेरिका का प्रोपेगैंडा करती नज़र आती है। मेरी नज़र से इस फिल्म का यही एक कमज़ोर क्षण है। बराक हुसैन ओबामा रिज़वान से मिल लेते हैं। वैसे ही जैसे काहिरा में जाकर अस्सलाम वलैकुम बोलकर दिल जीतने की कोशिश करते हैं लेकिन पाकिस्तान और अफगानिस्तान पर उनकी कोई साफ नीति नहीं बन पाती। याद कीजिए ओबामा के हाल के भाषण को जिसमें वो युद्ध को न्यायसंगत बताते हैं और कहते हैं कि मैं गांधी का अनुयायी हूं लेकिन गांधी नहीं बन सकता।
इसके बाद भी यह हमारे समय की एक बड़ी फिल्म है। हॉल में दर्शकों को रोते देखा तो उनकी आंखों से संघ परिवार और सांप्रदायिक दलों की सोच को बहते हुए भी देखा। जो सालों तक हिन्दू मुस्लिम का खेल खेलते रहे। मुंबई में इसकी आखिरी लड़ाई लड़ी गई। कम से कम आज तक तो यही लगता है। एक फिल्म से दुनिया नहीं बदल जाती है। लेकिन एक नज़ीर तो बनती ही है। जब भी ऐसे सवाल उठाये जायेंगे कोई कऱण जौहर,कोई शाहरूख के पास मौका होगा एक और माइ नेम इज़ ख़ान बनाने का। फिल्म देखने के बाद समझ में आया कि क्यों शाहरूख़ ख़ान ने शिवसेना के आगे घुटने नहीं टेके। अगर शाहरूख़ माफी मांग लेते तो फिल्म की कहानी हार जाती है। ऐसा करके शाहरूख खुद ही फिल्म की कहानी का गला घोंट देते। शाहरूख़ ऐसा कर भी नहीं सकते थे। उनकी अपनी निजी ज़िंदगी भी तो इस फिल्म की कहानी का हिस्सा है। हिन्दुस्तान में तैयार हो रही नई मध्यमवर्गीय मुस्लिम पीढ़ी की आवाज़ बनने के लिए शाहरूख़ का शुक्रिया।
(साभार: naisadak.blogspot.com)

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

नेता जी के नाम खुला पत्र

नेता जी के नाम खुला पत्र

आदरणीय नेता जी
'१९९२ के बाद आपसे मुखातिब हूँ इस बीच परछाई की तरह आपकी तस्वीर और राजनीत की शक्ल लिए चलता और लड़ता रहा हूँ सोचा था एक यैसे ईमानदार और इज्जतदार शख्स के पीछे खड़ा हूँ जहाँ से 'देश की शक्ल' बदल देने की हिम्मत , ताकत और जज्बा दिखाई दे रहा था'
"मुलायम सिंह जी मान जाओ जिनके दिल यह कहने को तैयार बैठे है की सपा में सुधार हो जायेगा अमर सिंह के जाने से.अमर को अगर फिर मनाया तो वह निराश होंगे |"
अमर सिंह आपको लगता है की नेता है पर येसा नहीं है आपके पास आने से पहले अमर सिंह को कौन जानता था उनकी हैशियत 'मुलायम की वजह से बनी है' पर आपके समझ में यह क्यों नहीं आता की आपकी राजनैतिक दुर्दशा अमर सिंह की वजह से हुई है "सितारे और पूंजीपति तो मड्राते ही उसी पर या वही है जहाँ संभावनाएं होती है " जयाप्रदा , जया बच्चन या न जाने कितनी सिने तारिकाओं से काबिल सक्षम महिलाएं पिछड़ों और मुसलमानों तथा दलितों के परिवारों में तब भी थी और आज भी है "जिनके आरक्षण के लिए आज आप लडाई कर रहे हो महिला आरक्षण में हिस्सेदारी के लिए" पर क्या उक्त प्रकार की नारी को - राज्य सभा , लोक सभा या अपनी सरकार में किसी काबिल पद पर आपने बैठाया , जरा सोचिये उन्ही के पतियों, पिताओ, भाईओं ने लड़ - लड़ कर आपको बुलंद किया था, पर उस सारी बुलंदी की मलाई अमर की मंडली चट कर गयी , अब देखना ये है की उस मंडली के लोग कहाँ जाते है . एक बात और है नेता जी "सदियाँ लग जाती है किसी आन्दोलन को खड़ा करने में पर पल भर की बेरुखी ध्वस्त कर देती है क्या आपको याद है इसी अमर के चलते कितने यादवों को आपने दण्डित किया था, यदि कहें तो सूचि संलग्न कर दूँ पर उनका नाम लिखना भी ना इंसाफी ही होगी, निठारी से लेकर आपकी चारदीवारी तक के लोंगों ने अमर की वजह से कोसा था आपको "राजनीति में कोई आये कोई जाये पर इमान और इज्जत से राजनीति में रहना आपसे सिखा था फूलन को भी आप पर ही भरोसा था - पर इस अमर ने इज्जत और इमान का सौदा ही नहीं इतने घटिया तरीके से बेचा है, वैसे तो कोई बेसहारा माँ भी अपने औलाद को न बेचती इन्हें क्या पता "कितनों के पिताओं ने अपने बच्चों के होम वर्क भी नहीं देखे होंगे और पागलों के तरह पार्टी के लिए जान तक दे दिये, दलालों की सूचि में नाम आ जाये इसलिए अमर के चक्कर काटने और कटाने वालों को हमने भी देखा है . "लोहिया के कितने यैसे चेले थे .

अतः नेताजी वक्त आ गया है अमर सिंह के सपा से चले जाने का आप विश्वाश करो अभी इनको जाने दो,यह फिर लौट कर आपके पास ही आयेंगे जब आप की शक्ति लौट आएगी 'वह समझदार है आपको यैसे ही नहीं छोड़ के जा रहे है वह जानते है अब उनका काम ख़तम हो गया है हिसाब किताब यैसे लोग नहीं करते है देते भी खूब है लेते भी खूब है |
सादर |
(- चित्रकला जैसे कम लोकप्रिय विषय में पढाई करने के उपरांत जब कला कुल स्वर्गीय राय कृष्णदास के सुझाये "पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक कला" पर प्रोफ.आनंद कृष्ण के निर्देशकत्व में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से शोध किया था. इस कम के लिए जब मै पूर्वी उत्तर प्रदेश का सर्वे किया था और उस समय जो 'सामाजिक सरोकार - सामाजिक भेदभाव नज़र आया था' लगा था यह शायद राजनीति से दूर हो जायेगा उसी जज्बे के साथ राजनीति के करीब आया था १९९१ का गड्वारा, जौनपुर से विधान सभा का चुनाव समाजवादी जनता पार्टी (सजपा) से पर जल्दी ही मोह भंग हो गया था, पर आज इसलिए यह लिख रहा हूँ की एक डरपोक से ताकतवर कैसे डरता है -?)
-डॉ.लाल रत्नाकर