सोमवार, 9 मई 2011

लाल रत्नाकार की पेंटिंग पर बैठक



०१ मई २०११ स्थान आर-२४,राजकुंज, राजनगर, गाजियाबाद |
इस बार की बैठक डा. लाल रत्नाकार की पेंटिंग और उनकी कला यात्रा पर
केंद्रित थी। पिछले महीने ही मंडी हाउस में उनकी कृतियों की प्रदर्शनी
लगाई गई थी और तभी से बैठक के साथी उस पर बहस करना चाहते थे। पहली मई को
हुई इस बैठक की शुरुआत लाल रत्नाकार ने ही की और बताया कि किस तरह वे
अपने गांव की दीवारों को कोयले और गेरू से रंगते हुए कला की ओर मुड़े।
दरअसल वहीं उनकी रचना प्रक्रिया के बीज पड़ गए थे। यह भी दिलचस्प है कि
वे स्कूल में विज्ञान के छात्र थे और तभी जीव विज्ञान के चित्र बनाते हुए
उनके लिए खुद को अभिव्यक्त करने का ऐसा फलक मिल गया, जो उन्हें देश की
कला दीर्घाओं तक ले आया। इसके बाद चर्चा की शुरुआत करते हुए जगदीश यादव
ने कहा कि रत्नाकार के अधिकांश चित्र में स्त्रियां खामोश नजर आती हैं।
उन्होंने सवाल किया कि आखिर सबको चुप क्यों किया गया है। उन्हें कुछेक
पेंटिग्स की कंपोजिशन को लेकर भी आपत्ति थी। बैठक के वरिष्ठ साथी तड़ित
दादा ने कहा, मैं अपने आसपास जो कुछ घटता देख रहा हूं, मेरे लिए पेंटिग
भी उसी का हिस्सा है। रत्नाकार के चित्र बहुत खामोश लगे, कुछ जगह रंग
अटपटा भी लगा। कहीं-कहीं चित्रकार की जिद भी दिखती है। सुदीप ठाकुर ने
कहा कि रत्नाकार की पेंटिंग में एक तरह का सिलसिला दिखता है और लगता है
कि हर अगली पेंटिंग पिछली की कड़ी है। जिस तरह से कहा जाता है कि कोई भी
कवि जिंदगी भर एक ही कविता लिखता है शायद चित्रों के बारे में भी ऐसा ही
है।
प्रकाश ने रत्नाकार की पेंटिंग के बहाने कला के तार्किक आयाम की चर्चा
की। प्रकाश के मुताबिक रत्नाकार जी की लाइनें मजबूत हैं। चित्रों में
महिलाएं पुरुषों से सख्त नजर आती हैं, यदि मुख्य आकृति के साथ पूरा
परिवेश होता तो शायद ये चित्र कहीं ज्यादा प्रभावी होते। पार्थिव कुमार
ने जानना चाहा कि चित्र बनाना या पेंटिंग बनाना कहानी लिखने से कितना अलग
है? दोनों रचनाकर्म में क्या फर्क है। राम शिरोमणि ने कहा कि रत्नाकार के
चित्र खूबसूरत लगते हैं, लेकिन पात्र मूक लगते हैं। उनके मुताबिक जीवन
सीधा-सपाट नहीं है। यदि चित्रों में हरकत नहीं होगी तो वे निर्जीव
लगेंगे। उन्होंने कहा कि रचना से पता चलता है कि वस्तुस्थिति कैसी थी।
रचनाकार उसमें जोड़ता-घटाता है। प्रो. नवीन चाँद  लोहनी ने  कहा कि अंत तय कर कहानी
नहीं लिखी जा सकती। यही बात  कला के साथ है। व्यावसायिक दृष्टिकोण अलग हो
सकते हैं। उन्होंने कहा कि रत्नाकार के चित्रों के चेहरे कई बार मेरे
जैसे लगते हैं, गांव के चेहरे लगते हैं। उन्होंने इन चित्रों के मूक होने
के तर्क को खारिज करते हुए कहा कि कई बार मूक वाचन का भी अर्थ होता है।
विनोद वर्मा ने दिलचस्प लेकिन महत्वपूर्ण बात कही कि रचना और रचनाकार
दोनों को जानने से कई बार निष्पक्षता और निरपेक्षता खत्म हो जाती है।
इसमें खतरा है और उन्हें यह खतरा रत्नाकार और उनके चित्रों के साथ भी
महसूस हुआ। उनके चित्रों पर लिखी अपनी दो कविताएं- सुंदर गांव की औरतें
और कहां हैं वे औरतें, भी पढ़ी। उन्होंने कहा कि रत्नाकार के चित्रों को
देखकर लगता है कि वे किसी यूटोपिया की बात कर रहे हैं।  ये औरतें ऐसी
हैं, तो गांव की औरतें ऐसी नहीं होतीं। उनके चित्र एक धारा के दिखते हैं,
मगर धारा का एक खतरा भी है कि यदि धारा कहीं पहुंच नहीं रही है। विनोद के
मुताबिक रत्नाकार के चित्रों में चकित करने वाला तत्व नदारद है।
अंत में लाल रत्नाकार ने कहा कि उन्हें बैठक के जरिये अपने चित्रों को नए
सिरे से देखने का मौका मिला। विनोद के तर्कों से असहमत होते हुए उन्होंने
कहा कि मैं जिस परिवेश से आया हूं वहां चकित करने वाले तत्व नहीं हैं।
कुमुदेश जी और श्री कृष्ण जी  की उपस्थिति श्रोताओं जैसी ही रही .

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